दहलीज़
Dahleez
A web magazine run by a group of poets from New Delhi
Editor: Pijush Biswas, Contact: poet.area@gmail.com, Mob: 9871603930 Time Spent on Page:

Sunday, March 8, 2020

शैलेंद्र शांत

सड़कें गवाह हैं

 

 

कि उतरे थे उस पर
गलियों से निकल कर
पगडंडियों से होकर
मेड़ों से होकर
पहाड़ों से उतर कर
जंगलों से निकल कर
कई-कई बार
कि कायम नहीं हो सके जंगलराज


जब भी जरूरत आन पड़े
आबाद रखिये सड़कों को

संसद में की गई गलती
सुधार देती हैं सड़कें !



सपने पर जोर नहीं !




बारह बज गये हैं
घड़ी में
चेहरे पर भी
पानी मारिये
पानी मारिये
फिर पोछा
और सो जाइये
सपने अच्छे आयेंगे
बुरे दिनों में भी
आ जाते हैं
सपने सलोने
उस पर किसी सत्ता का
किसी हुड़दंगिया टोली का
जोर नहीं, सच्ची, जोर नहीं !


बाबलू दा बाउल गीत गाते थे



अपने मोहल्ले का बाजारआज बंद है
मछली बाजार के एक बिक्रेता को

मृत्यु ने बुला लिया अपने पास
स्ट्रोक हो गया था उसे
वह जिंदादिल था और उम्र भी ज्यादा नहीं हुई थी
इसी बहाने लोगों ने उसके बाबत पूछा,जाना
इधर वह जरूरी कागजात को लेकर चिंतित था
और नगरपालिका का चक्कर लगा रहा था

बैंक और पैनकार्ड में नाम के हिज्जे और जन्म की तारीख को

एक रूप देने की कोशिश में था,क्या पता कब इनकी मांग हो जाए
वैसे, मुख्यमंत्री तक कह रही थीं कि किसी को कोई कागज नहीं दिखाना है
न देना है, पर नेताओं का क्या कब बदल जाएं, उसकी गिन्नी यानी मेहरारू
उसे बार-बार चेता रही थी,उसे जीवनसंगनी पर कहीं ज्यादा भरोसा था उनसे
उसे ही अधर में छोड़ गया,एक बिटिया के साथ,जिसे बहुत पढ़ाना चाहता था
इस बाजार का यह नियम है कि किसी भी दुकानदार के गुजर जाने पर उसे दूसरे दिन बंद रखा जाता है
और कम से कम दो-चार दिन चर्चा में रहता है एक मामूली आदमी, खास की तरह उसके गुणों को याद किया जाता है
बाबलू दा बाऊल गीत बड़े प्रेम से गाता था, अपने पिता से सीखा था,जो उस पार से चले आए थे उजड़ कर अपनी मां-बाबा-काका आदि-आदि के साथ...



पुस्तक-संस्कृति



किताब छप रही हैं
लोग बोल रहे हैं
सुन रहे हैं सज्जन
तालियां भी बज रही हैं
और वह इंतजार कर रही है
कि कोई आए,उसे उठाए,उलटे-पलटे
दो-चार आते हैं जरूर उसके पास
बाकी चाय-नाश्ते की लाईन में लग जाते हैं
और फिर लिफ्ट से नीचे ऊतर जाते हैं
कुछ पुस्तक-संस्कृति पर बोलते-बतियाते पाए जाते हैं...



मेहनतकश हैं


(धुव्रदेव मिश्र " पाषाण" की लिए उनकी एक कविता पर काव्य प्रतिक्रिया)


मूर्तिकार
सर्जक हैं
यह दूसरी बात
कि कर दिए जाते रहे
विवश हैं
जैसे कि जीवनदायी नदियां
जैसे कि देवी-देवी की रट लगाते समाज में स्त्रियाँ
जैसे पछाड़ खातीं
चाहत की कश्तियां
जैसे कि अंधेरी बस्तियां
वे मेहनतकश हैं

No comments:

Post a Comment

সম্পাদকীয়

পীযূষকান্তি বিশ্বাস দেহলিজ ফিরেছে পঞ্চম সংখ্যা হয়ে । দিল্লির নিজস্ব রঙে । ফিরে এসেছে ভাইরাস আর প্রতিহিংসার প্রচ্ছদে । তার উপরে এমন এক...